गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें भगवान कैसे मिलेंजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....
अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
प्रभुका अनन्य चिन्तन, निरन्तर चिन्तन करे, दूसरेका स्मरण हो ही नहीं। कोई एक बार भी यह कह दे कि मैं तेरा हूँ तो भगवान् कहते हैं कि मैं उसे छोड़ता नहीं हूँ।
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतदव्रतं मम॥
(अध्यात्मरामायण ३।१२)
मेरा यह नियम है कि जो एक बार भी मेरी शरण आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कहकर मुझसे अभय माँगता है, उसे मैं समस्त प्राणियोंसे निर्भय कर देता हूँ।
दया इतनी है कि स्मरणमात्रसे ही कल्याण है। अन्तकालकी स्मृतिमें कैसी दयालुता भरी हुई है। इसमें प्रभुकी दयालुता, समता, न्यायशीलता भरी हुई है। जिस किसीको भी स्मरण करते हुए जाओगे उसीको प्राप्त होओगे। दयाकी हद कर दी, अन्तकालकी स्मृतिका इतना महत्त्व क्यों रखा। उस बेचारेका मनुष्य-जीवन समाप्त हो रहा है, भगवान् सोचते हैं कि मैं ऐसा विधान बना दूँ कि एक मिनटमें उद्धार हो जाय।
लगन लगन सब कोइ कहे लगन कहावे सोय।
नारायण जा लगनमें तन मन दीजै खोय।।
परमात्माके लिये सब कुछ त्यागनेके लिये तैयार रहे, किसी चीजको कुछ भी नहीं गिने। परमात्माकी प्राप्तिमें विलम्ब हो रहा है वह हमारी ही कमी है, हमारे विश्वासकी कमीके कारण विलम्ब हो रहा है। भगवान् तो सब जगह वर्तमान हैं ही।
एक आदमी हमारे पास ही खड़ा है। हम पूछे कि उस आदमीसे मिलने में कितना विलम्ब है, दूसरा आदमी हँसता है, कहता है बड़ा मूर्ख है, विलम्ब क्या है? पासमें खड़ा है, जब चाहो मिल लो। जैसे किसी स्त्रीके गलेमें हार पड़ा हुआ है, वह उसे चारों तरफ खोजती है।
सम्बन्धियोंका वियोग होगा, यह बात तो है ही, परन्तु इस समय भी उनसे क्या सुख है। काठके लड्डू खाये वह भी पछताये न खाये वह भी पछताये। एक जाटके सात पुत्र थे, छ: तो विवाहित थे एक कुंवारा था। किसीने पूछा कितने पुत्र हैं? उसने कहा एक, छ: को डाकिनोंने ले लिया।
ससुरारि पिआरि लगी जब तें।
रिपुरूप कुटुंब भए तब तें॥
इसलिये अपने तो एक परमात्मा ही हैं।
उमा राम सम हित जग माहीं।
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥
मेरे यह पाँच-सात लड़के-लड़कियोंका अडंगा नहीं लगा तो अच्छा है। मुझे कोई पुत्रके मरनेका शाप दे तो वह मुझपर लागू नहीं होगा। मेरे घरके पीछे धानुकाके सात-आठ लड़के हुए, उनकी स्त्री सारे दिन रोती रहती कि मेरे बराबर कोई दु:खी नहीं है। अत: पुत्र आदिसे न जीते-जी सुख है न मरनेपर सुख है। अनुकूल नहीं होते तो न जीते-जी सुख है न मरनेपर सुख है। मरनेपर उनकी स्त्री छातीपर बैठी रहती है। पति डाँट तो सकता है, पुत्र ही न हो तो इनमेंसे एक बात भी नहीं होती। सबसे बड़ा दु:ख पुत्रशोक होता है। जिसे पुत्र ही नहीं हो, उसके क्या पुत्रशोक हो?
इसी प्रकार होते हुए भी त्याग दे तो उसको भी शाप नहीं लगता। सबके साथ उदारताका व्यवहार करे, आये हुए याचकको हाथका उत्तर दे। ऐसा रूप धारे-
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षत।।
(गीता १४।२२)
हे अर्जुन! जो पुरुष सत्त्वगुणके कार्यरूप प्रकाशको और रजोगुणके कार्यरूप प्रवृत्तिको तथा तमोगुणके कार्यरूप मोहको भी न तो प्रवृत्त होनेपर उनसे द्वेष करता है और न निवृत्त होनेपर उनकी आकांक्षा करता है।
गये तो जाओ आये तो आओ, द्वेष नहीं करे। श्रद्धा प्रेमको साथ रखती है। प्रेम बिना श्रद्धाके भी हो सकता है। माताका बच्चेमें, गायका बच्चेमें प्रेम है, श्रद्धा नहीं। अपने-अपने स्थानमें दोनों ही ठीक हैं। प्रेमका मूल्य भक्तिके मार्गमें है, श्रद्धाकी दोनों ही मार्गोंमें आवश्यकता है। ज्ञानके मार्गमें श्रद्धाकी प्रधानता है। वास्तवमें भक्ति और ज्ञान एक ही चीज है। ईश्वरमें परम प्रेम-अनुराग ही भक्ति है, वही असली भक्ति है। इसलिये प्रेम ही असली है, प्रधान है। भक्तिमार्गमें सबसे बढ़कर प्रेम है और ज्ञानमार्गमें सबसे बढ़कर श्रद्धा है। परस्पर तारतम्यता रखनेके लिये दोनोंकी ही आवश्यकता है। जैसे अन्न श्रेष्ठ है या जल ? दोनोंकी ही आवश्यकता है, इसी तरह बिना श्रद्धाके प्रेम किस कामका ?
किसीको सिसकाकर मारना हो तो खूब खानेको दे और जल न दे, इसी प्रकार बिना श्रद्धाका प्रेम है। श्रद्धा होनेसे प्रेम हो जाता है, श्रद्धा प्रेमको पैदा करनेवाली है। श्रद्धाके बिना भक्तिमार्गवालेका या ज्ञानमार्गवालेका किसीका भी काम नहीं चलता। बिना प्रेम भी नहीं ठहर सकता। श्रद्धा हटी प्रेम हटा। श्रद्धा मूल जड़ है। एक श्रद्धा हो जाय तो सब काम हो सकता है।
प्रह्लादको धन्य है कि पाहनसे प्रभुको प्रकट कर दिया, श्रद्धासे ही निकाला। अपने भी खम्भेमें या सिल-लोढ़ेमें या जलमें, अग्निमें या चाहे जिस चीजमें भगवान्को प्रकट कर सकते हैं। सूर्यमें श्रद्धा करो कि यह साक्षात् नारायण हैं। अपनी आत्मामें करो, उसमें भी नहीं हो तो होओ खराब जन्मो और मरो। दुनियामें किसीमें तो श्रद्धा करो। बिना आधारके तो दुर्दशा-ही-दुर्दशा है।
किसीका तो आधार होना चाहिये। अपने ऊपर कोई एक तो शासन करनेवाला हो। स्वतन्त्र रहा कि डूबा। शास्त्र नहीं माने तो पाप कौन माने। जितने पाप हैं शास्त्र ही तो उनका निर्णय करता है। शास्त्रका शासन है या ईश्वरका भय है या महात्माका शासन माने। रोगी वैद्यकी बात माने तो कुपथ्य नहीं करेगा।
कुपथ्य करेगा तो रोगी मर जायगा, उसके शासनसे कुपथ्यसे बचेगा। इसी प्रकार महात्माका शासन मानकर पतनसे बचना है। नीची योनियोंमें गिरना ही उसका नाश है। परलोक, ईश्वर, महात्मामें श्रद्धा है, यही पापोंसे बचनेका उपाय है।
भगवान्का अस्तित्व न माननेमें पाप, अश्रद्धा ही हेतु है, पूर्वसंचित पाप ही कारण हैं।
ईश्वर, महात्मा, परमात्मा सभी तो हैं, श्रद्धा न भी हो तो भी अच्छे पुरुषोंकी बात मानकर काम करे तो श्रद्धा पैदा हो जाती है। सत्संगमें प्रीति न भी हो तो भी सत्संगमें जाते-जाते प्रीति हो जाती है। विद्यामें प्रीति नहीं हो तो भी पढ़ते-पढ़ते प्रीति हो जाती है। भजन करते-करते ही प्रेम हो जाता है। पित्तकी बीमारी है, मिश्री खारी लगती है, खाते-खाते ही मीठी लगने लगती है। भगवान्का भजन अमृतमय है, भवरोगके कारण ही मीठा नहीं लगता, भजन करते-करते ही मीठा प्यारा लगेगा। दवा समझकर भी भजन करे तो भी पापोंका नाश कर देता है। जिनको भजनका आनन्द आ गया है वे तो भगवान्से मिलनेका सवाल ही नहीं करते। भगवान् मिलनेपर भजन तो होगा न, यदि भगवान्के मिलनेपर भजन-ध्यान छूट जाय तो वह भगवान्के मिलनेकी आवश्यकता ही नहीं समझते। प्रेमका तत्त्व भगवान् अधिक जानते हैं। कितना भजन करनेसे भगवान् मिलेंगे, यह बात उठते ही प्रेमी बोल उठता है, राम! राम! यह क्या ले उठा। भजन करनेमें तेरा हाथ क्या काँटोंमें जाता है?
जिनको भजन भारी लगता है उनके लिये साढ़े तीन करोड़ मन्त्र-जपकी संख्या बतायी गयी है। हम तो अपने जीवनको भजनपर ही निर्भर कर दें, भगवान्के मिलनेका सवाल ही नहीं उठावें। कोई पूछे कि आपको भगवान् मिले कि नहीं, अरे, राम! राम! यह आपने क्या कहा! कहाँ मैं तुच्छ व्यक्ति और कहाँ भगवान्, आपने कहा कि मैं भजन करता हूँ यही तो हमारे कलंक हैं। भगवान्के घरमें भी यदि न्याय हो तो मेरे-जैसे पामरको भगवान्का दर्शन कहाँ? भक्ति करनेवालोंके निकट पहुँच जाता है और जो कहता है कि मैं इतना भजन-ध्यान करता हूँ, भगवान् उससे दूर हट जाते हैं कि यह दुनियासे प्रमाणपत्र चाहता है, मेरा दर्शन दुनिया करा देगी क्या? जो यह समझता है, चाहता है कि दुनिया मुझे सबसे श्रेष्ठ माने, वह सबसे नीचा है। भगवान् कहते हैं कि दुनिया यदि तुमको सबसे बुरा माने तो तेरी क्या हानि है जब मैं तुम्हें श्रेष्ठ मानता हूँ। दुनियासे तो अपने गुण छिपाने चाहिये।
अधिकांश व्यक्ति भगवान्का भजन-पूजन भगवान्के लिये नहीं करते, अपितु अपने पूजनके लिये करते हैं। यह भाव नहीं होगा तो यह विश्वास हो जायगा कि अपने-आपको श्रेष्ठ मानना ही पाप है, फिर विलम्बका क्या काम है। यह भाव हटनेसे ही भगवान् मिलेंगे। भगवान्की प्राप्तिमें यह बाधा हो रही है।
अब तो अपना बाकी जीवन भगवान्के अर्पण कर दें। मनसे पूछे कि तुम्हें क्या चाहिये, एकदम निरपेक्ष होकर रहें। दुनियाका मोह बढ़ाना आफत मोल लेना है। भगवान्ने तो यह घोषणा कर दी कि मेरेमें ही प्रेम कर। इतना वैराग्य हो जाय कि संसारके जितने भोगपदार्थ हैं सबसे घृणा हो जाय। कंचन-कामिनीका नाम भी अच्छा नहीं लगे। 'समलोष्टाश्मकाञ्चन:' की स्थिति हो जाय।
रुपयोंका नाम भी अच्छा नहीं लगे। विषयभोगोंके त्यागके लिये इस श्लोकपर ध्यान देना चाहिये-
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।
(गीता ५।२२)
जो ये इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुखरूप भासते हैं तो भी दु:खके ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिये हे अर्जुन! बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।
युवा-से-युवा स्त्री स्पर्श करे, इन्द्रियोंके भी हाथ लगाये तो भी जिसके कामविकार नहीं हो, वही सबसे बढ़कर पुरुष है। खूब वैराग्य चाहे, वैराग्यवान् होकर संसारमें विचरे। श्रद्धा कम होनेमें कुसंग और पाप कारण हैं। या तो पापकी कमाई आ जाय या कुसंगका कारण है।
प्रश्न-उस समय यही समझमें आता है कि चाहे जितनी हानि हो, सत्संग नहीं छूटे।
उत्तर-जब प्रेम होता है तब ऐसी ही बात होती है, यही बात घनश्यामके है। उसके और भी अधिक है। उसके घरका काम है, स्त्री भी चाहे नाराज हो या कुछ भी हानि हो परवाह नहीं करता।
विषयासक्त पुरुषोका संग, विषयोका संग पतन करनेवाला है। सबसे अधिक खराब संग विषयासक्त पुरुषोंका और नास्तिकोंका है।
सत्संगमें रहे तो चाहे जितने विषय रहें, उनका असर नहीं हो सकता। जैसे गंगाके किनारे धूपका असर नहीं होता। गंगा धूपके असरको अपनी ठंडकसे कम कर देती है। इसी प्रकार सत्संग विषयोंका विकार कम कर देता है।
भजनका फल भी भजन ही चाहे, भगवान्का दर्शन भी इसलिये चाहे कि इसके बाद भजन बढ़ेगा। दुनियासे पास नहीं करावे। लोगोंसे तो छिपा ही रहे। मनुष्य जितना गुण छिपाता है, भगवान् उसके उतने ही निकट आते हैं।
हमारेमें लोग झूठा दोष लगायें तो इससे अपना बहुत लाभ है। गुण तो सच्चा भी प्रकाशित हो जाय तो अपना साधन नष्ट होता है, जैसे धन प्रकाशित करनेसे नष्ट होता है।
मनके विरुद्ध जितना काम हो, वह भगवान्के अनुकूल होता है। जो ऐसा मानता है भगवान् उसपर बहुत प्रसन्न होते हैं। वही बात दु:ख देती है जो मनके प्रतिकूल है। भगवान्का ही किया हुआ वह विधान है। पापोंका फल भुगताकर भगवान् मुझे पवित्र करते हैं। इसको जिसने जान लिया वही भगवान्का रहस्य जानता है। उसको फिर चिन्ता, दु:ख, भय, घृणा, द्वेष, वैर आदि कुछ नहीं होंगे। यदि भगवान्के अनुकूल न हो तो किसकी सामथ्र्य है जो यह कर सके। जब वह प्रभु करवाते हैं तो उसीमें अपना हित है। वह भगवान्का ही भेजा हुआ विधान है-
तुल्यनिन्दास्तुतिमौनी संतुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।।
(गीता १२।१९)
जो निन्दा-स्तुतिको समान समझनेवाला, मननशील और जिस किसी प्रकारसे भी शरीरका निर्वाह होनेमें सदा ही सन्तुष्ट है और रहनेके स्थानमें ममता और आसक्तिसे रहित है-वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान् पुरुष मुझको प्रिय है।
रजोगुण और तमोगुणका त्याग करे, वे बाधक हैं। सतोगुण बाधक नहीं है, इसका संग्रह करे। गुणातीत होनेपर स्वतः ही इनका त्याग हो जायगा। यह तो अपने लिये साधक है।
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- भजन-ध्यान ही सार है
- श्रद्धाका महत्त्व
- भगवत्प्रेम की विशेषता
- अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
- भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
- अनन्यभक्ति
- मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
- निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
- भक्तिकी आवश्यकता
- हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
- महात्माकी पहचान
- भगवान्की भक्ति करें
- भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
- केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
- सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
- भगवान् वशमें कैसे हों?
- दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
- मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
- संन्यासीका जीवन
- अपने पिताजीकी बातें
- उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
- अमृत-कण
- महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
- प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
- जैसी भावना, तैसा फल
- भवरोग की औषधि भगवद्भजन